यहाँ के पर्व एवं उत्सवों वर्ष प्रतिपदा से ही प्रारम्भ हो जाते है । चैत्र के नवरात्रों में श्रद्धालुओं की भारी प्यापुया दर्शनार्थ साती है । रामजी के जन्म दिन रामनवमी को विशेष उत्सव होता है । और नित्य सेवा श्रृंगार के अतिरिक्त पंचामृत स्नान विशेष निर्धारित जन्सीत्सव का श्रृंगार और 2 बार (प्रती होती है । विशेष भोग में वेसन के मोदक नैवेद्य विशेष धराया जाता है । पति एकादशी को विशेष श्रंगार एवं मुकुट धराये जाते है । चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को बलदेव जी का रासोत्सव होता है । जैसे श्रीकृष्ण की रास पूर्णिमा आश्विन की शरद पूर्णिमा नवरात्र के बाद की है । उसी प्रकार बलदेव जी की रारा पूर्णिमा चैत्र नवरात्र के उपरान्त मनागी जाती है । इरा की कथा का वर्णन हम "भगवान बलराम" ग्रंथ में उधृत करेंगे । चैत्र में रामलीला एव रावण का की लीला सम्पादित होती है ।
यहाँ के पर्व एवं उत्सवों वर्ष प्रतिपदा से ही प्रारम्भ हो जाते है । चैत्र के नवरात्रों में श्रद्धालुओं की भारी प्यापुया दर्शनार्थ साती है । रामजी के जन्म दिन रामनवमी को विशेष उत्सव होता है । और नित्य सेवा श्रृंगार के अतिरिक्त पंचामृत स्नान विशेष निर्धारित जन्सीत्सव का श्रृंगार और 2 बार (प्रती होती है । विशेष भोग में वेसन के मोदक नैवेद्य विशेष धराया जाता है । पति एकादशी को विशेष श्रंगार एवं मुकुट धराये जाते है । चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को बलदेव जी का रासोत्सव होता है । जैसे श्रीकृष्ण की रास पूर्णिमा आश्विन की शरद पूर्णिमा नवरात्र के बाद की है । उसी प्रकार बलदेव जी की रारा पूर्णिमा चैत्र नवरात्र के उपरान्त मनागी जाती है । इरा की कथा का वर्णन हम "भगवान बलराम" ग्रंथ में उधृत करेंगे । चैत्र में रामलीला एव रावण का की लीला सम्पादित होती है ।वैशाख में एकादशी, अमावस्या और अक्षय तृतिया "वरण दर्शन" बिशेष पर्व होते हैं । अक्षय तृतिया के दिन बिशेष रोग रान्तु का शीतल रोग कई मन सामिग्री धरायी जाती है । परशुराम जन्यती का उत्सव होता है । पूर्णिमा का पर्व भी बडे उत्साह से मनाया जाता है तथा श्री ठाकुरजी के उत्थापन दर्शन पखा सेवा तथा शैया सेवा का बिशेष ध्यान रखा जाता है । तथा खस खाने की सेवा धरायी जाने का क्रम शुरू हो जाता है ।
जेष्ठ मारा में शीतल रोग तथा दशहरा एव श्री कल्याण देवजी का जन्योत्सव एवं शीना यात्रा, सेवा एकादशी अमावस्या-म विशेष रोग, फूल बंगला प्राय: नित्य धराये जाते हैं । मध्यान्ह में शीतल रोग ठंडाई, फल, मेवा तथा विजया की शीतल पकाए के रोग आते हैं पूर्णिमा का मेला होता है एंव नृसिंह चतुर्दशी पर विशेष अर्चना होती है।
आषाढ मारा में एकादशी, अमावस्या के विशेष रोग राग होते है । शुक्ला द्वितिया को रथयात्रा उत्सव जिसमेँ आम दौल बतासे का मनों की तादाद में रोग लगाते हैं । रथ यात्रा पर विशेष फूलबंगला धराया जाता है और रथारूढ़ श्रीठाकृर जी के दर्शन होते हैं । पूर्णिमा गुरू पूर्णिमा होती है । इसमें भी राहस्वी है लक्षधिधि पर्यन्त दर्शनार्थी अति हैं । यह मान्यता है शि परमगुरू श्री बलदेव जी हैं । अत: इरा पर्व पर श्री दाऊजी के दर्शन का बिशेष पाल होता है । पारम्परिक मान्यता है कि आपको बजवारा, बज पात्रा या परिक्रमा का फल तभी प्राप्त होगा जब श्री दाऊजी के दर्शन कर लें अन्यथा पाल अच्छा ही रहता है । यदि श्रीकृष्ण का अनुग्रह प्राप्त क्ररमा है तो पहले बलदेव जी की उपासना करनी चाहिए । अन्यथा तपस्या राफल नहीं होती है । कहा है की बिना बलदेवजी संस्तुति के श्रीकृष्णा कृपा नहीं कर सकते । अग्रज की आज्ञा के बिना कृपा के उपक्रम पूरे नहीं होते । और फिर श्री दाऊजी तो बजराज हैं । राजा का अनुग्रह पहले होगा तभी श्रीकृष्ण, श्रीराधा व श्री यमुना जी कृपा करेंगें । जो श्रद्धालु गिरिराज परिक्रमा कस्ते हैं उन्हें अवश्य ही श्री दाऊजी के समक्ष हाजरी देय दर्शन कर परिक्रमा के फल की सार्थकता का अष्ट्रशिर्शद लेना चाहिये । अन्यथा फल अधूरा रहता है
श्रावण मास में मल्हार राग की रामाज के साथ एकादशी से झूलों का उत्सव प्रारम्भ होता है । 24 फुट हैंधि स्वर्ण मंडित झूलॉ में श्री दाऊजी खुलते हैं । यह भी एक आस्था का अदभुत सोपान है । इतने विशालकाय देव विग्रह र्करनै झूलते हैं । इरा कौतूहल के दर्शन करकं ही संतुष्टी को जा सकती है । हरियाली अमावस्या, हरियाली तीज, एकादशी एव रक्षाबंधन विशेष पर्व एव उत्सव होते हैं । झूलों की विशेष हजारा अस्ति, दर्शनीय है । जो रक्षा बंधन के दिन होती है । इस दिन घेवर र्फनी का रोग विशेष होता है ।
भाद्रपद कृष्णा 1 से ही बधाई की रामाज होती है । जन्माष्ठमी को विशेष पर्व उत्सव के साध रात्रि को जन्म के समय पंचामृत स्नान विशिष्ठ श्रंगार वेरा कीमती आभूषण जवाहरात के दर्शन एवं गूंजा, लडडू का विशेष रोग धराया जाता है । हरा दिन भी सेवायत्त विपुल धनराशि खर्च कर विशिष्ठ रोग सामिग्री धराते है । नवमी को नद महोत्सव जिसमें मारवन दही नारियल लूट का दृश्य एवं मल्ल विद्या का प्रदर्शन अत्यंत मनोहर होता है । हजारों व्यक्ति दूर-दूर से निरंतर दर्शनार्थ अति है । एकादशी अमावस्या के बाद श्री दाऊजी का जन्योत्सव बलदेव षष्ठी मनाया जाता है । इरा दिन भी विशेष रनेवा श्रृंगार जवाहरात के दर्शन एव दिन में नन्द-साजि-पूव शोभा यात्रा बहुत ही आकर्षण होती है । रात्रि में सांस्कृतिक राष्ट या विदद गोष्टी एव रंगारंग कार्यक्रम पूरी रात्रि भर चलते हैं । लक्षधिधि राउया में दर्शनार्थी अति है । उत्नर प्रदेश के पूर्वाचल में यह उत्सव वहुत प्रसिद्ध है । साध ही दंगल ,रसिया दंगल आदि राम्पन्न होते है । इरा दिन वेरानी मोदको का भोग विवटलॉ की मात्रा में धराया जाता है ।/p> राधाष्टमी को श्री रेवती के बिशेष श्रंगार अर्चन तथा वामन द्वादशी को पूर्ण अर्चना पचामृत बिशेष ब्रह्मचारी बटुक श्रंगार, बिशेष भोग एवं मथ्यान्ह में आरती । अनत चतुर्दशी को (वानरा रत्तप श्री बलराम जी की विशेष रनेवा श्रंगार विशेष (प्रती एवं भोग राग । पूर्णिमा का तो मेला होता ही है ।
आश्विन माह (क्वार) - AAshvin - Kwaar Mah आश्विन मास में सँ1झी उत्सव का विशेष (प्रायोजन तथा अत्यन्त मनोहरी सँ1झी दर्शन आश्विन मारन में एकादशी अमावस्या के उपरान्त नव रात्रि में श्री हनूमान जी की कुंज में नवाहन रामायण पाठ हवन यज्ञ । दशहरा को विशेष पूजा श्रंगार तथा हलमूराल आयुध धराये जाले है । रारा पचाध्यायी का अत्यंत मोहक समाज गायन तथा शरद पूर्णिमा को विशेष रोग राग जवाहरात दर्शन तथा मध्य रात्रि में रनैवा (प्रती तथा खीर का कून्तर्लो की तादाद में भोग सेवापत द्वारा धराया जाता हैं इरा दिन पात: से लेकर दूसरे दिन पर्यन्त कितने हजारों दर्शनार्थी अति है । शीतल भोग मेवा के रथान पर उष्ण द्रव्य तथा उत्थापन दर्शन 3 से 4 को तक नित्य विजया का भोग नेवा-पाल धराये जाते है ।
कार्तिक मास के सभी पर्व उत्सव बडी धूमधाम से मनत्ते है । एकदशी के बाद धनतेरस नरक चतुर्दशी को छोटा दीपदान दीपावली को मंदिर में विशेष रामाज पूरे पक्ष में गोवर्धन पूजा की रामाज । 4 दिन पूर्व से भटटी पूजन अन्नकूट को विशेष सखडी सहित छप्पन रोग दोपहर को विशेष आरती तथा सहरत्रों ब्राह्मण, पण्डो का सामूहिक मदिर में परगद का आयोजन जो कि रनेवापत के द्वारा ही धराया जाता है । एवं विपुल धनराशि श्री ठाकूर जी की रनैवा में खर्च होती है । यमद्वितीया के बाद फिर अष्टमी को गोचारण लीला एवं दशमी का कंस का लीला शोभा यात्रा तथा देवारुथान एकादशी पर मंदिर में विशेष भोग एवं दीपदान तथा पूर्णिमा को भारी नेला । गोवर्धन धारण लीला में प्राय: बहुत है लोग यह नहीं जानने कि इस लीला में श्री बलदेवजी का भी ब्रज रक्षण में महान योगदान रहा ।
मार्गशीर्ष मास में एकादशी अमावस्या के बाद तैयारी पाटोत्सव नेले की । जो शि मार्गशीर्ष पूर्णिमा को होता है । श्री ठाकूर जी को विशेष रनान विशेष शरदऋतु के श्रृंगार, उषा द्रव्यों भोग राग तथा गदल धराया जता है । इसी कारण इस को गदल पूनॉ भी कहा जाता है । इस दिन यहॉ पाटोत्सव के उपलक्ष में नेला लगता है । जो कि पूरे पूस मास तक चलता है । दूर…दूर के यात्री अति हैं । नेला फील्ड में अनेक राग रंग सर्कस खेल तमारनै तथा अब सरकार की ओंर रने भी अनेकानेक आयोजन जिये जाते है । दूरस्थ दूकानदार अपनी विक्रय की सामिग्री लाते है । और लाखों की रनंस्टथा में यात्रीगण दर्शनार्थ अति रहते है । संयोगत: इस दिन ही तत्र शास्त्र की अधिष्ठात्री श्री विद्या की भी जयंती है । जो शि तत्र साधकों का पर्व होता है । इसी दिन श्री दाऊजी के श्री विग्रहों को वर्तमान मंदिर में पधराया गया था ।
पोष माह ने एकादशी अमावस्या तथा पूर्णिमा के विशेष उत्सव रनैवा श्रृंगार होते है । यदि मकर रनंकान्ति इस माह में होती है । उस दिन भी खिचडी उत्सव होता है । विशेष छप्पन रोग आते है । कून्तलाँ चावल की खिचडी तथा अन्य सामिग्रियॉ धरायी जती है तथा अन्नकूट के अनुसार समस्त सेवाथतों का सहभोज प्रसाद मंदिर प्रांगण में होता है । विशेष आरती के बाद दर्शन अनौसार हो जाते है । उस दिन का सम्पूर्ण रनेवाभार सेवायत वहन कते है ।
माघ नास के प्रारम्भ में ही मंदिर में हर्षोल्लास का वातावरण बनने लगता है एकादशी, भीनी अमावस्या के बाद बाति पंवमीको होरी सादा रोपण, बसंत की विशेष समाज ठाकूर जी के वस्त्र श्रृंगार बसती रंग के ही जाता पिछवाइयां तथा नित्य रात्रि समाज तथा फगवा भोग ।
फाल्युन के नाह का तो कहना ही क्या नित्य रग गुलाल मंदिर में 3 वार समाज गायन रोप, सुधि, मृदंग एव मंगाड्रे की ताल पर होरी के सग…रागनियों का गावन वरवस दर्शनार्थी के मंन में वस जता है । रात्रि की समाज का पूरे नाह की ही जोर छोर के साथ सम्पादन होता है । अमावस्या के दिन से होरी के विशेष उत्सव प्रारम्भ हो जाते है । उसे पूर्व महाशिव रात्रि का भी पर्व मनाया जता है । षरन्तु भावना होती है कि 'बाघम्बर ओढे सामंरौ' यानी शि श्रीकृष्ण के शिववेष धारण करने के उपलक्ष में यह उत्सव होता है । तेनाषायों के प्रारम्भ से नित्य टेसू के रंग से श्री ठाकूर जी होती खेलते है । रंग गुलाल के साथ समाज ओंर आरती घंटो की घोर नगाडे की ध्वनि डफ झांझ मृदंग के रवर एक देती आनंद का साम्राज्य उपस्थित कर देते हैं । "जैसे-जैसे होती के दिन निकट अति हैं । रंग-गुल/ल रस भरी समाज का आनंद भी क्रमश: बढ़ता जाता है । फिर होती के दिन श्री ठाकूर जी की बिशेष पूजा चोवा चंदन केशर अवीर गुलाल तथा विशेष विजया भोग होता है । राज भोग में विशेष सामिग्री धसयी जाती है । सकैय 3 बरने दर्शन के बाद भी नारायण आश्रम के राधाकृष्ण गोपाल जी के मंदिर में समाज गायन होता है । तथा श्री ठाकूर जी के प्रतीक हल मूसल के सस्थ्य समाज गायन करते सेवायत वृन्द होती पूजन को निकलते हैं । और स्वर लहरी फूट पड़ती है । इस शोभा यात्रा में सम्पूर्ण नगर वासी जि/बरिन वृद्व होती पूजा को निकलते है । इस दिन सभी अपने…अपने प्राचीन अस्त्र लाठियाँ आदि को धमकाते हुए परिक्रमा रूके मंदिर में पुन: वापस लोट कर श्री ठाकूर जी को प्रणाम कर अपने अपने आवासों को जाते हैं । रात्रि में पुन: 8 बजे के बाद समाज होती है । जिसमेँ: "आरिन यायौ री सजनी ये होरी भी त्यौहार" इस भावुक पद का गायन व्यक्ति को अपने सम्पूर्ण जीवन वृत्त को सोचने को मजबूर कर देता है । रात्रि में 10 को श्री ठाकूर जी शयन कर जाते है । होती के बाद प्रतिपदा यानी धूलैंडी के दिन प्रात: नियमानुसार दर्शन मंगला खुलते है । मंदिर का सवा कमं निर्बाध रोग राग समाज का व्यवस्था पूर्ववत चलती है । जबकि सम्पूर्ण नगर में रंग गुलाल की होती होती है । यहॉ कीचड़ व धुल का प्रयोग कतई नहीं होता । दोपहर 2 बजे पुन: दर्शन खुलते है और मंदिर प्रांगण में एक बहुत ही मंनोहरी नृत्य जिसे दहनावलि या दहनावर कहते हैं आयोजित होता है । जिसमें में सेकडो की से'छथा में श्री दाऊजी के सेवावत पण्डा कंवल भाभी एव देवर के संग में नृत्य करले है । इसमें अपने परम्परागत वख्वाभूषणों से सुसज्जित गोस्वामी घंड़गानों के स्वरूप में अता बाल वृद्व अत्यन्त दर्शनीय होते हैं । वहाँ से नृत्य के बाद श्री जगन्नाथ जी के स्मारक पर नृत्य का आयोजन होता है । रंग-बिरंगे गुलाल की घुमड़न ने यह पर्व सेमरत वज मंडल में अपनी रानी नहीं रखता । द्वितीय के दिन हुरगा उत्सव जो कि अन्तर्शष्टीव ख्याति का पर्व है मनाया जाता है । इस उत्सव में प्रांत: मंदिर के नियम सेवा तो नियमित सम्पादित होते ही है । परन्तु विशेषत हुरगा रंग गुलाल का अत्यन्त विशिष्ठ पर्व है । मंदिर प्रांगण में रंग के विशाल हौज बने हुए है । जो कि 40 फीट लम्बे 5 पीत गहरे तथा 3 पीत चौडे हैं । इनमें परम्परानुसार टेसू के फूलों से रंग जो शि पिछले 3 दिन से तैयार जिये जाते है । हुरगा खेलने के लिए तैयार रहते है । वाल भोग के बाद श्रंगार आरती के बाद दर्शन खुलते हैं । होती की समाज रंग गुलाल होता है । इसी सेमंव मंदिर प्रांगण में हजारों की सेरन्धा में यात्रियों का जमाव शुरू होता जाता है । मंदिर को सेमंरत चाहर दीवारों में बने भवनों की छतों पर सेहस्वी दर्शनार्थी हकढठे होते है । साथ ही मंदिर का समस्त प्रांगण भी श्रद्धालुओं है भर जाता है । ऐसा भारतवर्ष यया रनं'मवत: कहीं भी देखने कॉ ना मिले । राथ ही भारतवर्ष के अलावा इग्लैंड, अमेरिका, जर्मनी, रत्स, ब्राजील, आरट्रेलिया, फात्स आदि देशों के सेहरश्नों दर्शनार्थी वहाँ अति है । 12 को पुन: समाज होती है । श्रीकृष्ण बलदेव के प्रतीक 2 झंडे आते है तथा सेवापत श्री कल्याण वशजॉ की गृह वधुऐँ मंदिर के चौक में परम्परागत परिधान आभूषण धारण कर एकत्रित होती है । राज भोग के दर्शन एव समाज के वाद श्री ठाकूर जी से आज्ञा लेकर झंडो के राथ पडगान मंदिर प्रांगण में चलने लगते है और रंग गुलाल की वर्षा होने लगती है, जिसकी मात्रा कून्तलाँ में होती है । यह दृश्य तो एकदम दैवीय होता है । जिसे शब्दों में नहीं वरन अनुभव एवं दर्शन से ही रनंतुष्टि हो सकती है । 3 घंटे निरंतर यह होती उत्सव चलता है । छतों से गुलाल का उड़ना भीतर होंजो के रंग का खेल अदभुत होता है । 3 वन्टे के इस उत्सव में एक दम नियम एव परम्परा का सम्पूर्ण निर्वहन होता है । किसी भी असतील वातावरण का स्थान नहीं होता । पूर्णत: भगवदीव भावना से अनुप्राणित यह उत्सव मनाया जाता है । 3 घंटे के बाद उन झंडो को हुरहारिन लूट लेती है और रवर गूंज उठत हैं । इस रंग भी उत्सव को देखने जव तक त्तन में प्राण रहे । मंदिर प्रापण में बने विशाल मंच पर श्री ठाकुर जी के युगल स्वरूप श्रीकृष्ण बलराम के स्वरूप के चरणों में बैठ कर पूज्यपाद श्री पभुदत्त ब्रह्मचारी एव श्री श्रीपाद बाबा नियमित रूप से पधारते रहे । कमी उन है परन शिया भी तो उनका उतार मात्र एक ही होता शि यह दिव्य दर्शन तो गोलोक धाम की नित्य भ्रात्त हय के स्वरूप का साक्षात दर्शन है । यह तो भगवदीव उत्सव है । यह उनके देवत्व का वर्णन बता है । माप्ट व गौडीव सम्प्रदायाचार्यो में भी श्रीकृष्ण बलराम की उपासना का ही प्राचुर्य है । तृतीया एव चतुर्थी तक होती का उत्सव अब केवल मंदिर तक ही सीमित होता है । पचवी के दिन दोलोत्सव या फूल खेल मनाया जता है । इस दिन की समाज एंव होती अत्यंत आकर्षक होती है । जो जीवे सोखेलै पाए हरिसंग झूमर खेलिवै । पद तो हृदय को इतना विहृल कर देता है कि बरबस व्यक्ति अपने जीवन के सोपान पर बिचार करने को मजबूर होय विझ्वल हो जता है । मंदिर में जितना रग गुलाल होता है 1, जो शि मनों की तादात में होता है । रग…बिरगें गुलाल के उड़ने के साथ समाज के साथ परिक्रमा होने के बाद 1 वर्ष के लिए मदन यई को विदाई है देते है । षष्ठी को समरत मंदिर के खासा छत पिछवाई के बदलने एवं समस्त देवालय की धुलाई सफाई होती है । और पूर्व निर्धारित पूजाचंना का क्रम प्रारम्भ हो जाता है । वेस पंचमी के दिन बलदेव के समीपस्थ ग्रामों के निवासी खोल पूजा पर श्री दाऊजी के मंदिर प्रापण में अनेकानेक मंडलियां बडे ही गाजे बाजे, डफ, तोल, बम्ब, झाँझ, खड़ताल के साथ संगीत कार्यक्रम परतुत कर अपने श्रद्धा सुमन श्री चरणों में अर्पित करते हैं । इसके बदले आने वाली समस्त मंडलियों का मंदिर की अवैर से सम्मान कर पसाद पदुका देय अनुग्रहीत करते है ।