सूर्योदय के पूर्व मंदिर के नगाड़ खाने में नौबत शहनाई की ध्वनि के साथ प’मु जागते हैं । पात: छ: बसे मंगला दर्शन के पश्चात सेवा श्रृंगार का ओम प्रारम्भ होता है । विशिष्ट (गुलेल तैलाप्यंग के बाद पुरूषसूक्नोत कम से स्नानादि और पश्चात सेवा श्रंगार धराये जाते हैं । सेवा में पाद्य अर्व्य आचमन के उपरान्त ऋतु पर्व एवं उत्सवों क्री परम्परा के अनुसार श्रंगार के रंग तथा व्यवस्था निर्धारित होती है ।
धोती जामा हकलाई पटुका पाग धरान के बाद आभूषण धराये जाते है । कठ में हार वगनखा कदुला कटा पुत्:धिमाल एवं रत्न जटित आभूषण धराये जाते है । बनाई में खडुआ कुण्डल भोरमुकूट स्वर्ण मुकुट वांक चन्दिका आदि धरायी जाती है । इतने बडे देय विग्रह के श्रंगार में 45 से 50 मीटर कपडा लगता है । और (60 से 200 मीटर गोता । छत पिछवाई गादी आदि की व्यवस्था पृथक है ।
करार चन्दन कपूर युक्त तिलक धराये जाते है । पश्चात माता रेवती जी की सेवा श्री सूत्तत्रोक्त ओम से होती है । स्नान, श्रंगार के बाद सौभाग्य सूचक नथ किरीट मुकुट आदि धराये जाते है । इन्द्र आदि सुगंधित लेपन के बाद बालरोग अति हैं । बाल भोग में माखन एवं मिश्री का भोग (जीता है । पॉच पद पर्यन्त गायन के बाद छडी लकूट मुकूटादिं धरान के बाद श्रंगार (प्रती होती है । इसके बाद मध्यान्ह तक दर्शन खुले रहते हैं ।
मध्यान्ह में 12 को के बाद राज भोग की तैयारी होती है । राजभोग में निर्बाध रूप से जैसा कि श्री दाऊजी ने श्री कल्याण हैव जी को आदेश दिया था । निखरी सामिग्री मूडी, खीर, वासौदी लडडू रवरता श्री रवड, दही रावता, मठरी सारे व्यंजन के मनोरथ धराये जाते हैं । यह सेमी सामिग्री श्री ठाकूर जी के रसोई धर में ही सिद्ध होती है प्रतिदिन सेयावत पण्डो के धर से सूती सामिग्री आती है । उसेको सिद्ध कर ही धराया जाता है यह कम निर्बाध शताब्दियों से अनवरत चल रहा है । मात्र वर्ष में 2 दिन अन्नकूट एव मकर राकात्ति को कच्ची सामिग्री साती है ।
लेकिन उसके साथ ववक्री सामिग्री भी अवश्य धरायी जाती है । उसका विस्तृत वर्णन आगे देखेगे । सारी भोगराग की व्यवस्था सेवावत वण्डा अपनी वारी (आंसर) के अनुसार नित्यप्रति सम्पादित करते हैं । वडे उत्सव और वर्वो वर तो लक्षधिधि धनराशि व्यव होती है । इन बहे उत्सवों वर छप्पन रोग धराये जाते हैं 1वहॉ दृष्टव्य है कि प्राचीन रसोईघर का जीणोंद्वार आगरा निवासी श्री रामसेवक शर्मा ने अपनी वित्तजा सेवा के संधियों प्रभु सेवा में समर्पित शिया है ।
दोपहर राज रोग के रामव ऋतु के अनुसार सारग मल्हार आसावरी जौनपुरी काफी टोढी आदि रागों में पदों का गायन होता है । 6 पद गायन के बाद आचमन चीरी देय प्रसेस्ति पद गायन के बाद श्री ठाकुरजी धनौसेर हो जाते हैं ।
अक्षय तृतीया से हरियाली तीज तक मध्यान्ह उपरान्त गर्मी में 4 से 5 को तक तथा शीत ऋतु ने 3 से 4 को तक उत्थापन भोग आते हैं और 1 धन्टे दर्शन होते हैं । इसी रामव विजया तथा फल मेवा आदि व्यंजन भोग आते हैं । विजया के प्रकार भी ऋतुओं के अनुसार ही धराये जाते हैं । गर्मी में शीतल भोग, शीत में दूधिया, दही की, अधौटा केसरिया आदि विभिन्न प्रकार की क्रिबया प्रभु आरोमले हैं ।
साय सूर्यास्त के रामय पुनः दर्शन खुलते हैं एवं संध्या (प्रती सम्पादित होती है । इसके बाद दर्शन खुले रहते हैं । समयानुसार एवं ऋतु कालानुरूप विशिष्ट संगीत समाज का आयोजन होता है ।
समाज गायन की परम्परा यहॉ शताब्दियों प्राचीन एंव निर्बाध चल रही है । समाज गायकों में स्वामी लालदास जी, गोलुलदासजी, मथुमगलजी वैद्य, सोहन लाल जी, बंशीधर जी, यनश्यामजी, पीताम्बर जी वैद्य, द्वारका प्रसाद जी वैद्य, लाडली लाल जी, श्रीचन्द्रजी गुल तुलाराम जी स्वामी, परे) पातीरामजी, जानकी प्रसाद जी, धीरज लाल जी, पखायजी, सूरजभान, बाबू जी, गोमती दारा जी बोहरे, जगमोहन जी, छेदा लालजी मिस्टर आदि अनेक नाम स्मरणीय है । हरनारायण जी, रम्माजी पाठक तथा निरोत्तमजी पाठक अपने रामय के श्रेष्ठ शास्वीय गायक रहे हैं । यहाँ की रारा मण्डली जिसकी प्रशंसा स्वामी श्री मेघश्या मजी वृन्दायन बातों त्तक ने की है । श्री चंदजी गुरू एवं श्री तुलाराम स्वामी के निर्देशन में इरा मण्डली ने भारतवर्ष में रहुयात्ति प्राप्त की । वर्तमान में समाज गायन में गिराजमुकदम प0 विजय कृष्ण के नाम उल्लेखनीय है ।